देहरादून। उत्तराखण्ड में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की झलक हर कहीं मिल जाती है, इसके साथ कुछ प्रथायें और रहस्य ऐसे हैं, जिन्हें सुनकर आप चौंक जायेंगे। आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जहां पर महाभारत काल के दुर्योधन और कर्ण की पूजा की जाती है। इसके पीछे क्या रहस्य हैं आइये इसे जानते हैं—
आपको सुनने में अजीब जरूर लगे लेकिन यह सच है। जी हां, यह मंदिर देवभूमि उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में है। सदियों पहले बने इस मंदिर से यहां के लोगों की आस्था जुड़ी है। यहां प्राचीन काल में बना दुर्योधन का एक मंदिर है।
दुर्योधन मंदिर एक प्रसिद्ध पवित्र स्थल है जो मोरी के नजदीक जखोल में स्थित है। यह उत्तराखंड में स्थित सभी मंदिरों में सबसे बड़ा है। यह मंदिर हिंदू महाकाव्य महाभारत के पौराणिक पात्र दुर्योधन को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण सौर गाँव के निवासियों ने करवाया था। इसके अलावा ओसला, गंगर, दात्मिरकन में भी कौरवों को समर्पित मंदिर हैं। स्थानीय निवासी कौरवों एवं पांडवों को अपना पूर्वज मानते हैं।
हैरानी की बात यह है कि यहां दुर्योधन को देवता की तरह पूजा जाता है और दूर-दूर से लोग यहां आते हैं। हालांकि कहा जाता है कि अब इस मंदिर को शिव मंदिर में बदल दिया गया है। लेकिन यहां दुर्योधन की सोने की कुल्हाड़ी है जिसकी लोग आज भी पूजा करते हैं। कहते हैं कि भब्रूवाहन नाम का राक्षस महाभारत युद्ध में भाग लेना चाहता था, लेकिन कृष्ण ने उसे युद्ध से वंचित कर दिया। वहीं युद्घ में उससे अर्जुन को हानि होते देख श्री कृष्ण ने उसका सर काट दिया।
इसके बाद उसके सिर को एक पेड़ पर टांग दिया गया जहां से उसने पूरा युद्घ देखा। स्थानीय लोगों का कहना है कि जब भी महाभारत के युद्ध में कौरवों की रणनीति विफल होती या उन्हें हार का मुंह देखना पड़ता, तब भुब्रूवाहन जोर-जोर से चिल्लाकर उनसे रणनीति बदलने के लिए कहता था।
दुर्योधन और कर्ण दोनों भुब्रूवाहन के बड़े प्रशंसक थे। यहां के स्थानीय लोग अब भी उसकी वीरता को सलाम करते हैं और उसकी प्रशंसा में गीत गाए जाते हैं। यहां के लोगों ने भुब्रूवाहन के मित्र कर्ण और दुर्योधन के मंदिर बनाए हैं। दुर्योधन का मंदिर सौर गांव में, जबकि कर्ण का मंदिर सारनौल गांव में हे। इतना ही नहीं ये दोनों इस इलाके के क्षेत्रपाल भी बन गए।